शनिवार, 1 अक्टूबर 2011

काल के भाल में जीवन



काल से जीत पाना असंभव है |किन्तु काल के सापेक्ष चलते हुए जीवन में संतुलन बनाया जा सकता है |इस संसार में अमीर हो या गरीब ,छोटे या बड़े सभी काल के भाल में चल रहे है ,यही नहीं यह पूरी प्रकृति" काल "की नियामक है |मै विगत सालो से ज्योतिष के क्षेत्र से जुडी हुई हु इस दौरान कई कालसर्प से ग्रसित लोगो की कुंडलियो का अध्यन मैंने किया है |प्रकार चाहे जो हो " काल सर्प " से ग्रसित जातको के जीवन में नाना प्रकार की संगती -विसंगतियों का सिलसिला बना ही रहता है |जीवन का यदि पूर्वार्ध सुखमय है तो उत्तरार्ध सुखमय नहीं होता या फिर उत्तरार्ध सुखमय तो पूर्वार्ध नहीं |यदि हम गौर करे की वास्तविक में "काल सर्प "का प्रभाव मानव जीवन में क्यों और किस प्रकार प्रभावित होते रहे है तो ज्ञात होगा यह अभिशाप मानव जीवन में ही नहीं प्रकृति के निर्माण के साथ ही जीवन को प्रभावित किये हुए है |देव और दानव के द्वारा समुन्द्र मंथन की क्रिया ,प्रतिक्रिया में तब बदल गयी जब १४ रत्नों में विष की उत्त्पत्ति हुई |जिसे भगवान् शिव ने पान कर अपने कंठ में स्थान दिया और "नीलकंठ "कहलाये |विष से भी विषैला है विषाक्त जीवन जीना जहाँ सभी प्रयोजन निष्फल हो जाते है अथक किया गया  परिश्रम अपने परिणामस्वरूप कार्य को हानि में बदल देता  है |

क्या है कालसर्प योग ?

जन्म कुंडली में जब सारे ग्रह एक जगह एकत्रित हो जाते है तो ऐसी स्थिति को "योग "कहा जाता है |और जन्म कुंडली में जब सभी ग्रह राहू-केतु के एक ओर एकत्रित हो जाए तो ग्रहों की यह स्थिति "कालसर्प  योग "कहलाता है |यह अपने आप में कष्टकारी योग है |देर -सबेर यह अपनी विभीषिका को प्रदर्शित कर के ही रहता है |महर्षि पराशर और बराहमिहिर जैसे प्राचीन ऋषि -मुनिओ ने "कालशर्प योग की व्याख्या किया है और अपने शोध में इस योग को सिद्ध भी किया है |कई आधुनिक ज्योतिर्विज्ञ ने इस योग को केवल भ्रम बताया है ,किन्तु मैंने अपने अध्यन में कालसर्प योग से ग्रसित लोगो को कर्मदंड के रूप में जीवन के कई विषाक्त दोषों से गुजरते भी देखा है साथ ही अल्प समय में उच्चता के शिखर में चढ़ते हुए भी देखा है |
"कालसर्प "योग को प्रायः सर्वसाधारण रूप में किसी ने अच्छा नहीं माना है |इस योग में जन्मा जातक का अपना जीवन प्रायः शुन्य होता है ऐसा व्यक्ति जीवन पर्यंत दुसरो के लिए जीता है |
प्रायः राहू और केतु  के द्वारा इस योग को माना जाता है |पौराणिक कथाओ में राहू को "काल "तथा केतु को "सर्प "माना गया है |जिसका उल्लेख कार्मिक ज्योतिष में किया गया है | 
वास्तव में राहू -केतु छाया ग्रह है इनकी न तो अपनी दृष्टी है न ही सृष्टि किन्तु ज्योतिष शास्त्र में इन छाया ग्रहों  के माध्यम से जीवन के दुःख -सुख की व्याख्या की जाती है |राहू का जन्म भरणी नक्षत्र में तथा केतु का जन्म अश्लेषा में हुआ है जिसके देवता "काल "एवं "सूर्य "है |
यदि इन छाया ग्रहों का अध्यात्मिक विश्लेषण किया जाय तो इसका सीधा सम्बन्ध हमारे शरीर के "कुंडलिनी शक्ति" से है |मूलाधार में रीढ़ की हड्डी के पास से कुंडलिनी स्थित है जो सर्प की भांति कुंडली मारे बैठी है |जिसमे मुह राहू तथा पूंछ को केतु की संज्ञा दी गई है |
माँ भगवती और भगवान् शिव ही इस संसार के पालन करता और संहारक है |कालसर्प को समझने से पहले सर्प को समझना होगा |प्रायः सभी धर्म शस्त्रों में सर्प का उल्लेख मिलता है |कहते है जब भगवान शिव और शक्ति के मिलन के समय जो केश पृथ्वी पर गिरे वही "सर्प "में परिवर्ती हो गये |श्रीमदभगवत गीता में भगवान् श्री कृष्ण ने वासना के कारण "जन्म "की उत्त्पत्ति बताया है |वासना के परिणाम स्वरूप ही काम-क्रोध का जन्म होता है इन विकारों की अधिकता ही मनुष्वत खोने के बाद व्यक्ति "सर्प "योनी प्राप्त करता है |


पौराणिक कथाओ के अनुसार ब्रम्हदेव से सप्तऋषि  पैदा हुए |उनमे से मरीचि का पुत्र कश्यप ऋषि हुए |जिनकी दो पत्निया कन्द्रू तथा दूसरी विनीता हुई |कन्द्रू को संतान के रूप में सर्प और विनीता को गरुड प्राप्त हुआ |इस प्रकार मनुष्य का नागयोनी से निकटतम सम्बन्ध है |ज्योतिष शास्त्र में सत्ताईस नक्षत्रो में रोहणी और मार्गशीर्ष  सर्पयोनिया मानी गई है |


सर्प की हत्या स्वयं करना या करवान पाप कर्म माना गया है |इस पाप के कारण वंश -विच्छेद होता है |कई बार समूल नष्ट होने की स्थिति इसी दोष के चलते देखि गई है |इसके अलावा मै समझती हु की "कालसर्प "दोष यदि एक ओर काल की विभीषिका लिए हुए है तो दूसरी तरफ मोक्ष का मार्ग भी है |
सभी दुष्कर्मो के फलस्वरूप यह दोष यदि जीवन में आ भी गया हो तो वहीयदि समयक दृष्टिकोण  रख कर जिया जाए तो काल के भाल से जीवन को सभी दोषों से मुक्त किया जा सकता है |
हमारे पूर्वजो ने कई विधान बनाये है वही सर्प क्रिया का भी विधान है जो जन्म जन्मान्तर के पापकर्म से हमे मुक्त ही नहीं करता बल्कि सन्मार्ग की और प्रशस्त भी करता है |
हर युग में देव और दानव का जन्म हुआ है वो चाहे सतयुग हो या त्रेता या द्वापर या कास्य या फिर वर्तमान का लौह युग ,प्रलय के बाद मनुष्य का जन्म आदिमानव के रूप में हुआ |समय के साथ मानव में ज्ञान आता गया और वह लोकव्यवहार कर्मकांड की और बढ़ता गया ,जीवाश्म बन चुके युगों के शीलाआधार को मान कर वेद पुराण उपनिषदों का पुनः ज्ञान मनुष्य ने प्राप्त किया है |उस समय प्रत्यक्ष देवता "सूर्य " के सिवाय कोई नहीं था जिसे वे खुली आँख से देख पाते |सत्यत्व खो चूका मनुष्य केवल कर्मप्रधान रह गया है  |अपने घर  परिवार और पीढियों ,धन सम्पत्ति ,खेत खलियानों को सुरक्षित रखने के लिए वे मिटटी का टीला बना कर प्रतिक स्वरुप अपने ओजारो को पूजते |क्षेत्रीय देविदेवताये एवं सुक्ष्म शक्तिया विचरण कर वही स्थापित हो जाती और गृहस्वामी हो या अन्य को स्वप्न हो या प्रत्यक्ष दिव्या दर्शन प्राप्त कर अपने इष्ट देवो का प्रमाण प्राप्त कर मनुष्यों ने कुल देवी देवताओ की स्थापन का प्रचलन बनाया जो आज भी हर घर परिवार में परम्परा के रूप में विद्धमान है इन्ही देवशक्तियो के आयुध सर्पराज भी हुए जो उस घर परिवार के धन की कुल की  रक्षा करते | इन्ही देवसर्प की भूलवश ह्त्या ही वंश दोष ,कालशर्प दोष एवं अन्य दोषों का सृजनकर्ता हुआ जो पीढ़ी दर पीढ़ी आज भी अपनी  उपस्थिति को बनाये हुए है |जिसका शमन अनिवार्य ही है |
सत्य तो यह है की सभी मनुष्य जाती ऋषि परम्परा से जुड़ा हुआ है |हम सभी मनुष्य जाती १६ ऋषि की संतान है जो सभी ब्राम्हण हुए |जिनके द्वारा "गोत्र" का निर्माण हुआ है |हम कह सकते है हम सभी ब्राम्हण है अर्थात ब्रम्ह को जानने वाले लोग केवल कर्मदंड के रूप में वर्ण एवं जातिपरम्पराओं को भोग रहे है |वही यदि हमें अपने मूल का ज्ञान हो जाए तो ये दोष स्वतः समाप्त हो जाता है |मनुष्य उच्च हो या निम्न जाति का वास्तविकता यही है की हमारी महान कुंडलिनी शक्ति ही वो कालसर्प है जो विचारों के माध्यम से हमारे अन्दर हमारी प्रकृति हमारे पाप -पुण्य ,दुःख -सुख को फलित करता रहा है |ज्ञान के आभाव में केवल दुष्कर्म हो सकता है |हत्या ,आत्महत्या  या अन्य विसंगतिय निर्मित ही नहीं होगी तो भला ये दोष आये ही क्यों ?ज्ञान -विज्ञान ,वेद -पुराण  ये सब हमारे समझने की वस्तु है जिसे जीवन में उतार कर हमें काल के भयानक भाल कालसर्प दोष से मुक्त होना है |


कोई टिप्पणी नहीं: